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Monday, October 24, 2011

A Beautiful Mind - Part III

A Beautiful Mind - Part III

At Ayana, the grand pre-wedding ceremony,
We were being served the traditional dinner,
When my friend offered me a cuisine
That pleased my finicky palate more
Specially prepared by her mom for me
When chefs had prepared the food for others!

Shocked I was that she could still think of this
For a friend on the eve of her wedding,
Embarrassed I was beyond words for forcing
The gracious hosts for the exclusive treatment 
Grateful forever I would be for the best meal
And for teaching me what relationships mean!


Saturday, October 22, 2011

A Beautiful Mind - Part II

A Beautiful Mind - Part II

She asked me to accompany her,
To the abode of life and tranquility,
The famed ashram, to fetch a potion
For the emperor of maladies; 
The purpose brought alive memories
Which kept her melancholic
Till it was time for lunch and we headed
To the sylvan glade a mile away.

Leaving shoes outside as per custom, anxious was I
But she reassured given the sanctity of the place.
A sea of devotees was seated across
The rows of mats in the huge dining,
Where synchronized serving and partaking hands
Appeared to create dancing waves,
Soon we were a part of these waves
And came out satiated and smiling.

As destined my shoes had disappeared,
Feeling guilty she offered me her pair,
I refused and insisted on walking barefoot, 
Seeing her pleas fail, she picked up hers
And started accompanying me barefoot!
It was my turn to protest but to no avail and
With her shoes dangling merrily in her hand,
We covered the mile back arguing.

I was used to walking like this and
Was least affected; unaccustomed,
Her feet got badly bruised, yet
The only thought playing on her mind
Was that she was the reason behind my
Supposed loss and plight, though 
My real trouble was to hold back tears
As she drove us back some fifty miles.


Friday, October 21, 2011

A Beautiful Mind - Part I

A Beautiful Mind - Part I


तोहफे को निहारता, बन्दे का खिला चेहरा,
TTE के आने से, पड़ गया फीका,
कांपते हाथों से टिकट दिखलाई,
M के बदले छपे F की मांगी माफ़ी | 
सबने सोचा 100 का नोट तो बनता है,
बन्दे का हाथ भी पर्स पर ही टिका था, 
आगे से ध्यान रखिये, कहते हुए बढ़ा आगे 
हमने कहा, कमाल! ये तो इमानदार निकला |  

घंटे भर बाद नींद खुली, अगली सीट पर नज़र रुकी, 
कोई बैठा था वहां, बेल्ट में gun अटकाए,
पल भर के झटके के बाद सोचा gun छीन लूं 
पर सामने बैठी बहन को देख मन पलटा
आनन्-फानन में TTE-CRPF को खोजा,
अगले ही डब्बे में वो TTE मिल गया
किस्सा सुन वो चला gunman के पास, टिकेट मांगी
वो बोला, MLA का गार्ड हूँ, दो स्टेशन बाद उतरना है |

मुझे देख अब भी नाखुश, TTE बोला,
अगले ही डब्बे में है मेरी सीट,
गार्ड जी आप वहां आराम फरमाओ
और gunman के साथ चल पड़ा,
ठीक से शुक्रिया भी न कहने दिया
पर न जाने कैसे कुछ बोल निकल पड़े,
तो देखे केवल मन, अभी तक मूक बना बन्दा,
मुस्करा पड़ा जैसे सहमती जता रहा हो |   

Use Intezaar Hai

Did not know that the concept of Nautanki existed outside the realms of Hindi films also till happened to witness one going on in the grand garden of a so-called posh hotel!

उसे इंतज़ार है

दिल्ली की कोलाहल से दूर, बसा है संगम शहर मशहूर!
ढलते पहर का था कसूर, जो देखा लिया ग़मगीन दस्तूर!
शीला-मुन्नी पात्र यथार्थ है, कल्पना  नहीं, मरीचिका नहीं!
नचायें उसे लोभ-स्वार्थ हैं, जीवन के उसकी दिशा नहीं!

सजावट आलिशान,  इंतज़ार में आसथान,
दर्द भरी मुस्कान, फिर भी ठुमके में जान,
उन्मत्त हैवान, नर्तकी के गुण-रूप से हैरान,
उसके नयन बेज़ुबान, फिर भी मन परेशान!

कौतुक-वश उसे बुलवाया, हुनर सहराया,
उसके हालात की दास्तां का सवाल दोहराया;
'तारीफ न करना मेरी, तारीफ तो चुभता काँटा है,
जिसकी नोक पे, मुझे दुनिया ने बाँटा है!

माँ से छुप-छुप कर दिन रात रियाज़ किया,
जूनून के कौंध में अंध, मेनका का ताज़ लिया,
हाय मैं तो जीत कर भी हार गयी,
पल भर में स्वर्ग से धरा पर आ गयी!

उन मदहोश आँखों की ललक भरी ज्वाला से मेरी रूह दहकती है!
तुम्हारी आँखों के तरल आईने में मेरे दर्द की आत्मा झलकती है!
क्या सोच तुमसे मिलने आ गयी, अजब आत्मीयता पा गयी!
माफ़ करना तुम्हे बहिन पुकार गयी, पत्थर का दिल हार गयी! 

जीत कर हारने वाली को जानवर कहते हैं,
मुझे शीला-मुन्नी, उसे खच्चर कहते हैं,
वहां गले में बंधे घंटी, यहाँ पैरों में घुँघरू,
वहां बदन पे बोझ, यहाँ भी यही आबरू!

जो सच इस दलदल से निकालने की नीयत हो, 
तो पगली, मुझे अपनी मेहरी की ही हैसीयत दो,
या फिर संग मेरे इस नरक की अग्न में जलो,
वरना तो इसी पल अपनी दुनिया में लौट चलो!'

विकल्पों से सिहर गया मेरा अंतर-मन,
पीछे हटने लगे कदम मेरे अन-मन,
वो मासूम दिखी पल-भर को चालबाज़,
बस गूंजते रह गए उसके अलफ़ाज़!

'यों नहीं कि अश्क को छलकना नहीं आता, कसूर बेदर्द दारु और हिजाब का है!
यों नहीं कि थिरकते पैरों को थकना नहीं आता, सवाल उड़ते पैसों के हिसाब का है!
यों नहीं कि उम्मीद को तैरना नहीं आता, क्या करिये जो दरिया तेज़ाब का है!
यों नहीं कि जुबां को और फिसलना नहीं आता, इंतेज़ार अब आपके ज़वाब का है!'