तोहफा
वो ले चले सोलहवीं मंज़िल पर जन्नत दिखलाने,
घर हो बेटे का भी अपना, माँ के सपने सच कराने।
बालकॉनी के बाईनोकुलर से देखा हमने गौल्फ़ कोर्स,
देखी नदिया कल कल बहती, उड़ते पंछी औ रेस कोर्स,
देखी ट्रैक पर उड़ती कारें और आँगन में मज़दूर बस्ती,
वो बोले बन जाये बिल्डिंग, मिट जाएगी इनकी हस्ती।
देख जहन्नुम बस्ती, पसीज गया मन, हो गया वमन,
यहाँ जल, वहाँ मल, रोटी पर मिर्च बढ़ाए भूख की अग्न,
काँधे छूती छत, झुके करेँ गमन काले कंकालों से तन,
सूअर की घुर घुर से घबराये, बीमार बालकों का चमन।
बस्ती के नज़ारों ने बदला हमारी जन्नत का रंग रूप,
आंसूं का फव्वारा, बिल्डिंग बन गयी शोषण का कूप,
गुलामी की छत्त, जुर्म की बालकनी, भूख की दीवारें,
तड़पता फर्श, हताश सीढीयाँ, ज़ख़्मी आइना चीखें मारें,
मजबूरी का आँगन, किल्लत की रसोई, लाचारी का सोफा
और चीथड़ों की सज्जा, कैसे दें माँ को हम ऐसा तोहफा?
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